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आंखों के आंसू और लबों
की खामोशी दे दो। मेरी
पल मुझको अपने दिल की उदासी
दे दो।।
तुमसे बढकर कुछ और
नहीं मांगा रब से, मेरे
लिए तेरी दोस्ती है अहम
सबसे, इस रिश्ते को अपनी
मुस्कान जरा सी दे दो। मेरी
पल मुझको अपने दिल की उदासी
दे दो।।
जिंदगी के इस सफर में,सुख-दुःख
की तरुणाई में, शामे महफिल
हो कि य़ा फिर साज़े दिल
तन्हाई में, तुम्हारे
प्य़ार की वो एक किरण उजासी
दे दो। मेरी पल मुझको अपने
दिल की उदासी दे दो।।
आंखों के आंसू और लबों
की खामोशी दे दो। मेरी
पल मुझको अपने दिल की उदासी
दे दो।।
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कहानी एक जिंदगी
की
वो एक लड़की
जब थी छोटी बच्ची लगती
थी सबको
झरनों
सी निर्झर,बसंती हवा सी खुद
से ही बेखबर मस्त पुरवा
सी आरती के दिए सी, पूजा
के फूलों सी सच्चे दिल
से मांगी गई एक दुआ सी
वो एक लड़की युवती बनी
तो लगने लगी वो
बहती
नदी सी, चंचल पवन सी बरखा
के बूंदों सी, सुन्दर हिरण
सी बलखाती बेलों सी लहराती
हुई सी सूरज की पहली मद्धिम
किरण सी
वो एक लड़की
हुई जो उसकी शादी लगती
थी वो तो
घुंघटे
में चंदा सी,मोहनी अदा
सी शर्मायी, सकुचाई, अनछुई
लता सी भावनाओं की कोमलता,
निश्चल ह्दय सी घर-आंगन
संवारती, हर पल जवां सी
वो एक लड़की बनी
जब मां तो लगने लगी वो
उम्मीदों के चमन सी,
खुशियों के दामन सी अनगिनत
सपने संजोए नयन सी प्यार
लुटाने को वसुंधरा पर
फैली ममता के आंचल में
उन्मुक्त गगन सी
उस एक लड़की ने किया
न्योछावर सबकुछ अब थी
वो केवल
अस्तित्व
विहीन एक अनजानी पहचान
सी चंद सांसों में लिपटी
कुछ पलों की मेहमान सी चलते
हुए भी उसका जीवन ठहरा
हुआ था पड़ी थी एक कोने
में तन्हा निष्प्राण
सी
ये कहानी नहीं सिर्फ
उस एक लड़की की वास्तविकता
है ये तो
इस दुनिया
की आधी आबादी की बेबस सी
दिखती हर एक नारी की रस्मों-रिवाजों
में सिमटी हुई मर्यादाओं
के नाम पर उसकी लाचारी
की |
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16/04/07
हमें राज दिल के भले
तुम बताया न करो। पर कसम
तुमको यूं गम अपना छुपाया
न करो।। लोग शिकवा करें
कि शिकायत करें, दिल तुम्हारा
दुखाने की कवायत करें, इस
जमाने की बेकार की बातों
पर अश्क पलकों के चिलमन
से जाया न करो।। याद
करके उन्हें आंख भर आए
जो, उन हसीं लम्हों में
खुद को खो जाने दो, उनके
अहसास से फिज़ा कर लो रौशन
मगर इस तपिश में दिल अपना
जलाया न करो।।
स्त्री
की मर्यादा
क्या तुमने कभी
तथाकथित मर्यादा के नाम
पर अंदर ही अंदर किसी
अंतर्द्वंद से जूझती
एक स्त्री के अंतर्मन
की पीड़ा समझने की कोशिश
की है।।
मुझे नहीं पता
कि तुम्हारा जबाव क्या
होगा। तुम हमेशा की तरह, इस
सवाल के मौन प्रत्युत्तर
की प्रतीक्षा करोगे, या
फिर ये कहकर टाल जाओगे
कि एक स्त्री की पीड़ा
केवल वही जान सकती है।।
पर जबाव चाहे जो
भी हो, तुम कहो या कि मौन
रहो। हर स्त्री की जिंदगी
का यह शाश्वत सत्य है, जिससे
शायद तुम भी इंकार नहीं
करोगे।।
कि यदि वो वर्जनाओं
के टूटने के डर से आक्रांत
हो उठती है, तो रिश्तों
को तोड़ने का इल्जाम उसी
पर लगता है। और यदि अपने
दर्द को अपने ही भीतर समेटने
की कोशिश करती है, तो उसका
परिणाम भी उसे ही भुगतना
पड़ता है।।
02/04/07
मुझे डर लगता
है, अपनी खामोशियों को
शब्द देने से नहीं, बल्कि
उन शब्दों में अर्थ खंगालने
वाले अर्थवेत्ताओं से।।
जो कि मेरे
ही सामने, मेरी भावनाओं
की उन शाब्दिक अभिव्यक्तियों
को, तार-तार, बेजार करते
हुए क्षीण कर देंगे संवेदना
तक उनकी सत्ताओं से।।
हां मुझे
डर लगता है निःशब्दता
के इस घेरे के टूटने से
नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के नाम
पर, शब्दों के उच्छृखल
विषवाणों से।।
क्योंकि
वाणी की उन्मुक्तता भले
ही कितनी भी सीमांत क्यों
न हो, बहुत मुश्किल है उसे
रोक पाना स्थिर पाषाणों
से।।
30/03/07
भारत
की कीमत पर इंडिया के विकास
के मायने
देश के तेजी
से विकास की ओर बढ़ने के
साथ ही भारत और इंडिया
के बीच की खाई भी लगातार
बढ़ती ही जा रही है। यहां
आपका अपना तर्क हो सकता
है कि भारत और इंडिया दोनों
तो अपने ही देश के दो नाम
हैं फिर इनकी पहचान अलग
कैसे हुई। लेकिन यदि आधुनिक
संदर्भ में इन दो नामों
का विश्लेषण करें तो यह
स्पष्ट हो जाएगा कि आर्थिक
विषमताओं के मद्देनजर
आज भारत और इंडिया की अपनी
अलग-अलग पहचान कायम हो
चुकी है।
भारत यानि
देश की आत्मा, गांधी की
अवधारणा और वास्तविक
रूप में आधुनिक सुख-सुविधाओं
से वंचित आर्थिक विकास
में तथाकथित पिछड़े गांवों
और प्रदेशों का प्रतिबिंब।
वहीं, इंडिया का आशय उन
महानगरों व उपनगरों से
है जहां मल्टीनेशनल कंपनियों
की बाढ़ सी आ गई है और देश
के आर्थिक विकास में जिनका
योगदान काफी अहम माना
गया है।
आंकड़े
बताते हैं कि देश में वर्ष
2006-07 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद
में 9.2 फीसदी की बढ़ोतरी
रही वहीं,पिछले तीन सालों
में आर्थिक विकास दर भी
आठ फीसदी के ऊपरी स्तर
पर कायम रही। आज देश में
औद्योगिक विकास की दर
14 फीसदी के उच्चतम स्तर
पर पहुंच चुकी है जो 1996 से
अब तक सबसे अधिक है। लेकिन
यहां यह बात ध्यान देने
लायक है कि जिसे हम विकास
का पर्याय मान बैठे हैं
वह सही मायने में विकास
कहलाने के लायक भी है या
नहीं। विकास की आधुनिक
अवधारणाओं पर यदि नजर
डालें तो चाहे वह विकसित
और विकासशील देशों की
परस्पर निर्भरता का सिद्धांत
हो या प्रसिद्ध संचारवेत्ता
विल्वर श्रेम की टि्कल
डाउन थ्योरी। सभी में
प्राकृतिक और माननीय
संसाधनों का दोहन किए
बगैर टिकाऊ विकास के साथ-साथ
विकास का ऐसी अवधारणा
पर बल दिया गया है जिसका
लाभ ऊपर से लेकर नीचे के
स्तर तक एकसमान पहुंच
सके। लेकिन अब तक विकास
के जितने भी मॉडल अपनाए
गए हैं, उन सबकी सबसे बड़ी
खामी यही रही कि वे निचले
वर्ग की आधारभूत दैनिक
आवशयकताओं और अपेक्षाओं
को पूरा कर पाने में सफल
नहीं हो पाए।
आज भी
हम जिस विकास की दुहाई
देते हुए आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भर बनने की बात
कर रहे हैं, उसका आधार भी
अमीर-गरीब और विकसित व
विकासशील क्षेत्रों के
बीच तेजी से फैल रही असमानता
की गहरी खाई पर ही टिका
हुआ हआ है। वास्तव में
हम जिस तेजी से विकास की
ओर बढ़ रहे हैं उसी तेजी
के साथ असमानता की खाई
भी और गहरी होती जा रही
है। जो आने वाले दिनों
में राजनितिक-सामाजिक
और सांस्कृतिक अस्थिरता
का कारण बन सकती है। इसलिए
यह जरूरी है कि देश में
होने वाले हर तरह के विकास
का लाभ सभी वर्ग सामान
रूप से पहुंचे। ताकि तेजी
से फैल रहे असंतोष पर अंकुश
लगाने के साथ ही इंडिया
के तथाकथित विकास के नाम
पर भारत को नष्ट होने से
बचाया जा सके।
27/03/07
अंधेरों के आगे
उजालों की दुनिया, गमों
से गुजरकर खुशी का जहां। मिलता
है सबको लिखा हो जो किस्मत
मे वक्त चलता ही जाता है
रूकता कहां।।
धूप-छांव, कल-आज-कल
में उलझी हुई जिंदगी की
कहानी बस इतनी सी है। समय
के मुहाने पर बहती हुई उम्रे-रफ्ता
रवानी बची जितनी सी है।।
प्रातः की हर किरण
में उजास भरता है सूरज रात
रौशन करे ये उसको हक है
कहां। मिलता है सबको लिखा
हो जो किस्मत मे वक्त चलता
ही जाता है रूकता कहां।।
जो समझ सको तो राज
सारे हैं सुलझे हुए, ना
समझो तो हर बात है एक पहेली। पहर-दो
पहर क्या आठों पहर तक, जिस
तरह अखंड ज्योति जलती
है अकेली।।
बहार आने पर हर
फूल खिलकर मुरझा जाते
हैं मुरझा कर फिर खिलें
ये उनकी फितरत कहां। मिलता
है सबको लिखा हो जो किस्मत
मे वक्त चलता ही जाता है
रूकता कहां।।
महकती हुई वो बहारों
की दुनिया
इंसानी फितरत भी
कितनी अजीब होती है। इंसान
जितना पाता है,उससे अधिक
और अधिक पाने की चाहत पल-पल,
हर पल बढ़ती ही जाती है।
और इसके साथ ही बढ़ता जाता
है अपने लक्ष्य तक पहुंचने
का प्रयास। जो सपनों के
आधार और उन्हें साकार
करने की जीजिवीषा पर टिका
होता है।
ऐसे में सोते-जागते
बस एक ही ख्याल, बस एक ही
आरज़ू और एक ही जूनून होता
है इंसान का कि वो अपने
जीवन में जल्द से जल्द
अपने मुकाम को हासिल करते
हुए ख्वाबों के रूप में
महकती हुई उस बहारों की
दुनिया तक पहुंच जाए।
सैद्घांतिक रूप से ये
बातें मन को कितनी शांति
प्रदान करती हैं। माना
कि जिंदगी में एक सफल मुकाम
हासिल करने की चाहत हर
इंसान में होती है और शुरूआती
दौर में सच्ची ललक और पाक
इरादों से ओत-प्रोत भी।
पर आधुनिक संदर्भ में
इंसान जिस तरह से सत्ता,
शक्ति और पैसों के पीछे
भाग रहे हैं,क्या उससे
सच्ची खुशी मिल रही है।
सच तो यही है कि अपने
लक्ष्य तक पहुंचने की
उद्दीग्न महत्वकांक्षा
से प्रेरित हो उसे पाने
की खुशी का रसपान करने
के उद्वेग में उसकी अपनी
पहचान क्षीण पड़ चुकी
है। व्यवहारिक रूप में
यदि देखें तो आज पैसा इंसान
का माजी भी बन चुका है और
भविष्य भी। और इंसान बिना
थके, बिना रूके उसके पीछे
लगातार भाग रहा है। क्योंकि
उस ऊंचाई पर जहां कि वह
पहुंचना चाहता है, वहां
प्रसिद्घी, पैसा, नाम, शोहरत
और सबसे बढ़कर चाटुकारों
की एक बहुत बड़ी फौज़ स्वागत
में खड़ी नजर आती है। इस
तरह आखिरकार इन सबतक पहुंचने
में वह तथाकथित इंसान
अपनी खुशी, मन की शांति,
रिश्तों की सम्पूर्णता
और इन सबसे अहम अपनी आत्मा
तक को भी मार देता है।
लेकिन तब वो बहारों
की दुनिया कांटों के ताज
से कम नहीं रह जाती। जहां
न रिश्तों के फूल खिलते
हैं और न ही स्नेहिल भावनाओं
में सुगंध ही रह जाती है।
जहां न खुशियों के दीप
ही जलते हैं और न ही सुख-चैन
की हरी-भरी ठंडी छांव ही
मिलती है। फिर अपने स्वार्थ
से वशीभूत हो इंसानियत
की बलि देते हुए ऐसे बंजर
जमीन तक पहुंचने की उत्कंठा
क्यों। अपनी बुलंदी पर
इतराने की खुशी से ज्यादा
औरों की नाकामी का जश्न
मनाने की प्रबल आकांक्षा
किसलिए। और इसके साथ ही
सच्चे रिश्तों और भावनाओं
की कीमत पर दिखावटी संसार
रचने का स्वांग क्योंकर।
ठहरो की तनिक
रूककर एक सांस जरा भर लो, जीवन
की डगर है बड़ी,और लक्ष्य
नहीं आसान। आंखों में
ख्वाब सजाकर आकाश बनक
लो पर, स्वार्थ की वेदी
पर, कहीं खोना मत पहचान।।
12/03/07
|
एक अभिलाषा
कोमल मन, चंचल
चितवन मुख पर तेरे प्यार
की आभा है। पाना चाहूं
सानिध्य तेरा जग देखने
की अभिलाषा है।।
मन में जीवनकी
एक ललक अस्तित्व तेरी
पहचान हूं मैं। तेरी कोंख में सांसें
लेती हूं इस दुनिया से
अनजान हूं मैं।।
नवजीवन का संचार
किया दिया ईश्वर ने संसार
मुझे। बोलो
क्या दोगी जीने का जननी
तुम अधिकार मुझे।।
परछाईं हूं मैं
तेरी मां तेरा ही तो अंश
हूं मैं। क्या दोष है इसमें
मेरा गर नहीं तुम्हारा
वंश हूं मैं।।
तेरी तनुजा कोई
बोझ नहीं मां ममता
का तरुवर फलने दे। पल्लिवत-पुष्पित
होने का
एक बार तो मुझको
मौका दे।।
ये कामना अंतर्मन
की है नयनों
की मौन ये भाषा है। पाना
चाहूं सानिध्य तेरा जग
देखने की अभिलाषा है।। | | 08/02/07
यूं ही कभी
चलते-चलते
किसी खुशनुमा मोड़ पर राह
अपनी भी मिल जाए यूं ही
कभी। साथ ऐसा कि जब तू
मेरे पास हो पल वो खुशियों
के आएं यूं ही कभी।। जिंदगी
के सफर में मिले ग़म या
खुशी उम्र भर ना सही बस
घड़ी दो घड़ी जब यादों
के सजाओ तुम गुलिस्तां खुशबू
अपनी भी शामिल हो यूं ही
कभी।।
जोर
किस्मत पर जब अपना चलने
लगे और ये दुनिया अपने
रंग में रंगने लगे सुनहरे
ख्व़ाबों की जिस दिन ताबीर
हो अपनी चाहत भी शामिल
हो यूं ही कभी।।
दूर
नजरों से भले दिल के नजदीक
हों जब पुकारो हमें, हम
सदा करीब हों भूलकर भी
हमें याद रखना मगर अश्क
तुम न बहाना यूं ही कभी।।
तेरी
आंखों में उदासी की लकीरें
हैं जो, एक दिन इसमें चमक
खुशियों की दिखाई देगी।।
|